Friday 6 February 2015

उस पार क्षितिज के

देखो उस पार क्षितिज के,
दिखता जो अंतिम छोर है !
वहाँ से हाथ हिला कर कोई,
मुझे बुलाता अपनी ओर है !

खिंचती जाती मैं पास उसके
बँधी उस संग नेह की डोर है !
याद जब-जब आती उसकी
भीग जाती नयन की कोर है !

निशां न वहाँ गम के तम का
खिली रहती उजली भोर है !
जाना चाहूँ दौड़ पास उसके
न जानूं, जाना किस ओर है !

-सीमा

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