जब दुख की अति हो जाती है
दिग्भ्रमित मति हो जाती है
एक किरण कौंध कहीं जाती है
यूँ आशा हमें बहलाती है !
जब रात अमा की आती है
राका भी नजर चुराती है
एक लौ कहीं जल जाती है
यूँ आशा हमें बहलाती है !
जब बदली गम की छाती है
घनघोर घटा घिर आती है
चल चपला चमक तब जाती है
यूँ आशा हमें बहलाती है !
अंत निकट जब दिखता है
तम-सा आँखों में घिरता है
अलख-ज्योति राह सुझाती है
यूँ आशा हमें बहलाती है !
जीवन में जितने घाव मिले
हौले हौले उन्हें सहलाती है !
उतार फेंकती तम की चादर
रवि-किरनों से नहलाती है !
यूँ आशा हमें बहलाती है !
-सीमा अग्रवाल
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