Friday, 1 August 2025

बढ़ रहे हैं दुक्ख प्रतिपल...

बढ़ रहे हैं दुक्ख प्रतिपल,
किस तरह निस्तार होगा ?

सुध न कोई तन-बदन की,
बेखुदी में जी रही हूँ।
अटकलों को दुह रही बस,
आस-आसव पी रही हूँ।
कर खुदा पेशीनगोई,
क्या कभी उद्धार होगा ?

कब छँटेंगे मेघ गम के,
कब घटेगा घुप अँधेरा ?
कब किरण रवि की पड़ेगी,
कब धवल होगा सवेरा ?
तैरता जो नित नयन में,
क्या सपन साकार होगा ?

हो रही दोहरी कमर है,
किस तरह ये बोझ ढोऊँ ?
फिक्र में घुल रात रीते,
चैन से इक पल न सोऊँ।
छाँट दे कुछ भार मन का,
सच बहुत आभार होगा।

© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र )
"गीत सौंधे जिन्दगी के" से

No comments:

Post a Comment