सौम्यता शालीनता की,
तुम अनोखी सी छटा हो।
जो निखर उठती बरस कर,
वो घिरी घन की घटा हो।
मुख कमल उत्फुल्ल हर पल,
गम-शिकन दिखती नहीं है।
ये सुघड़ता ये निपुणता,
हर कहीं मिलती नहीं है।
गूढ़ अतिशय पावनी ज्यों,
शंभु की जलमय जटा हो।
घुप तमस में चाँदनी सी।
बादलों में दामिनी सी।
शांति का आभास देती,
रात तुम वो कासनी सी।
केश काले लग रहे ज्यों,
घिर रही काली घटा हो।
© सीमा
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