Thursday, 8 May 2025

कुछ दोहे...

कुछ दोहे...

तुलना मेरी आपकी, कैसे हो प्रभु मान्य ?
आप महकता खेत हैं, मैं अदना सा धान्य।।१।।

करो समर्पण राम सा,  सीता सा संघर्ष।
जो तुम चाहो देखना, प्रेम - नेम उत्कर्ष।।२।।

चढ़ा आवरण झूठ का, दिखते हैं झक्कास।
कहने भर के ठाठ बस, भीतर से खल्लास।।३।।

एक किनारे से बँधी, नाव न करती पार।
चलना ही जीवन समझ, चलकर उतरे पार।।४।।

तट से जो नौका बँधी, गाँठ बाँधती छार।
अकर्मण्यता जीव की, केवल भू पर भार।।५।।

नींद न आती रात भर, मन में उठें फितूर।
ख्याली घोड़े  दौड़ते, सरपट कितनी दूर।।६।।

भेजा मेला देखने,     देखा- हुए निहाल।
पलट बुलाएँ तात जब, जाएंगे तत्काल।।७।।

अजब यहाँ माहौल है, अजब यहाँ के खेल।
ऐसे जग के साथ प्रभु,     मिले न मेरा मेल।।८।।

माँ मेरी मुझसे कहे, लगा न जग से नेह।
चंद दिनों रहकर यहाँ, जाना अपने गेह।।९।।

बस्ती में डाका पड़ा, घर-घर में अति शोर।
निर्धन चिन्ता क्या करे, क्या ले लेगा चोर ?।।१०।।

दौलत बढ़ती देखकर, बढ़ जाता मन-कूप।
अंत न होता चाह का, आती धर  नव रूप।।११।।

© ® डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. ) 
साझा संग्रह "कल्पलता" से

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