तुलना मेरी आपकी, कैसे हो प्रभु मान्य ?
आप महकता खेत हैं, मैं अदना सा धान्य।।१।।
करो समर्पण राम सा, सीता सा संघर्ष।
जो तुम चाहो देखना, प्रेम - नेम उत्कर्ष।।२।।
चढ़ा आवरण झूठ का, दिखते हैं झक्कास।
कहने भर के ठाठ बस, भीतर से खल्लास।।३।।
एक किनारे से बँधी, नाव न करती पार।
चलना ही जीवन समझ, चलकर उतरे पार।।४।।
तट से जो नौका बँधी, गाँठ बाँधती छार।
अकर्मण्यता जीव की, केवल भू पर भार।।५।।
नींद न आती रात भर, मन में उठें फितूर।
ख्याली घोड़े दौड़ते, सरपट कितनी दूर।।६।।
भेजा मेला देखने, देखा- हुए निहाल।
पलट बुलाएँ तात जब, जाएंगे तत्काल।।७।।
अजब यहाँ माहौल है, अजब यहाँ के खेल।
ऐसे जग के साथ प्रभु, मिले न मेरा मेल।।८।।
माँ मेरी मुझसे कहे, लगा न जग से नेह।
चंद दिनों रहकर यहाँ, जाना अपने गेह।।९।।
बस्ती में डाका पड़ा, घर-घर में अति शोर।
निर्धन चिन्ता क्या करे, क्या ले लेगा चोर ?।।१०।।
दौलत बढ़ती देखकर, बढ़ जाता मन-कूप।
अंत न होता चाह का, आती धर नव रूप।।११।।
© ® डॉ. सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
साझा संग्रह "कल्पलता" से
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