शब वो काली नहीं ढल पाई...
जो चाहा था नहीं बन पाई
मेरी मुझ पर नहीं चल पाई
परवान चढ़ीं हसरतें जब-जब
वक्त ने तब-तब की निठुराई
बेरहमी से कुचले गए फन
चाहत मेरी जब - जब इठलाई
खुदा ही समझ बैठा वो खुद को
पूजा उसने मेरी ठुकराई
नाजुक मोम-सा दिल था मेरा
किसने उसमें ये अगन लगाई
घुली अमावस बन जीवन में
शब वो काली नहीं ढल पाई
ठिकाना सुख को मिल न पाया
मन में गहनतम पीर समाई
डेरा डाल पसर गए दुख
तड़प उठा मन टीस अकुलाई
चलती किस्मत सदा उल्टी ही
बात है ये पक्की अजमाई
गाज गिरी ख्वाबों पर ऐसी
दिल पथराया नजर धुँधलाई
भाव विगलित हुए सब मन के
रुकी कलम फिर नहीं चल पाई
-सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
" मनके मेरे मन के" से
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