जगो-उठो हे, कमला-कांत ....
पाप शमन हों, ग्रह हों शांत
जगो-उठो हे, कमला-कांत !
आषाढ़ शुक्ल- एकादशी
चले चातुर्मास शयन को
दुख-भँवर में घिर गये हम
दर्शन दुर्लभ हुए नयन को
घात लगाए बैठा तबसे
काल बली सर पे दुर्दांत
मेटो दुख हे, कमला-कांत !
रोता हमको छोड़ गये तुम
भक्तवत्सलता तोड़ गये तुम
गम-आवर्त में देख हमें प्रभु
क्यूँ मुँह हमसे मोड़ गये तुम
चैन न एक पल पाया तबसे
है मन उद्विग्न अति अशांत
लखो पीर हे, कमला-कांत !
बीते चार माह वे दुख के
तिथि सुखद जागृति की आयी
रोम-रोम में सिहरन खुशी की
बेला पुन्य सुकृति की आयी
खटते-भटकते आस में सुख की
प्राण थकित हैं, मन है क्लांत
हरो ताप हे, कमला-कांत !
जाने कौन देश से चल के
आया मुआ दुष्ट कोरोना
टाले टले न, प्राण हरे कितने
आए हर पल हम को रोना
बस उरग-सा गरल उगलता
आया लाँघ सभी सीमांत
नागांतक पर चढ़ आओ
त्रास मिटाओ हे, श्री कांत
जगो-उठो हे, कमला कांत !
- © सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
"मनके मेरे मन के" से
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