ज्यों देख गगन में चाँद पूर्ण
हुलसित उमंगित
हो उठता शांत जलधि
उठने लगतीं लहरें अपरिमित
आतुर हो कैसा उछलता
मधुर स्पर्श की चाह में
तब धैर्य, संयम भी
कुछ साथ न देता
टूट जातीं समस्त मर्यादाएं
ससीम भी तब
निर्बन्ध, निर्बाध
असीम हो जाता !
कुछ ऐसी ही दशा हो जाती है
इस शांत- स्थिर
मन की मेरे
दूरी से ही देख तुम्हें
उठने लगता ज्वार
शत- शत इच्छाएँ जाग्रत होतीं
हर्ष का पारावर न रहता
रोम- रोम आह्लादित होता !
चाहत होती
तुम तक आ
नन्हे करों से अपने
छूकर तनिक
महसूस करूं तुम्हें
पर हसरत कभी ये पूर्ण ना होती !
मेरे लिए तो
बस यही
परम सुख मेरा
कि प्रतिबिंब तुम्हारा
मन- मानस में
समाहित हो
शत- शत क्रीड़ाएं करता
लुकता, छिपता, ओझल होता
उफ !
कैसा अद्भुत
अप्रतिम
कुहक जाल बुनता !
रहना बस यूं ही
दैदीप्यान सदा
मन के निस्सीम निलय में मेरे
तुम्हारा होना
रोशन कर देता मेरा जहां
पल भर नजरों से
ओझल होना
ढक जाता स्याह चादर
सघन तिमिर की
मन पर मेरे !
- सीमा
Saturday 20 February 2016
चमको चाँद निस्सीम निलय में ---
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