Thursday 5 November 2015

ए मेरे निष्ठुर भाग्य विधाता !

हँसी न आने दी अधरों पर,
अश्कों पर भी रोक लगा दी !
ए मेरे निष्ठुर भाग्य-विधाता,
मुझे तुमने ये कैसी सज़ा दी !

कैसे इठलाते फिरते थे
रोके न किसी के रुकते थे
दिल में मचलते अरमानों की
अर्थी ही हाय ! उठा दी !

अंधड़ आया, बादल गरजे,
और टूटकर बरसा पानी !
नन्हें, नाजुक सपनों की,
सबने मिल हस्ती मिटा दी !

कितने प्यारे दिन थे आए
मन ने अनगिन ख्वाब सजाए
कान भरे किस्मत के किस ने
उसने लिखी हर खुशी मिटा दी !

प्यार ही तो माँगा था अपना
दौलत तो कभी ना माँगी थी
क्यूँ अनचाहा देकर मुझको
अनजानी सी राह दिखा दी !

चैन आए अब कैसे दिल को
कैसे आँखों में निंदिया आए
मसलकर मेरे सुख की कलियाँ
क्यों काँटों की सेज बिछा दी !

क्यूँ आए अब हँसी लबों पर
क्यूँ मन ये झूमे, नाचे, गाऐ
सुला कर मेरी किस्मत तुमने
सोई हुई हर पीर जगा दी !

स्नेह-सागर यूँ तो छलक रहा
पर पहुँच ना उस तक कोई मेरी
बुझ ना सकेगी जो जनम- जनम
क्यों मन में ऐसी प्यास जगा दी !

               ---सीमा अग्रवाल---

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