कौन सोचता बोलो तुम ही…
कौन सोचता बोलो तुम ही, दुखिया की लाचारी पर ?
पढ़ो पोथियाँ भरी पड़ी हैं, भारत की सन्नारी पर।
देश हुआ आजाद मगर क्या, खुशहाली सब तक आयी ?
मिल जाएगी गली-गली में, क्या कहना बेकारी पर।
कल कितना चहका करती थी, आज न कोई नीड़ रहा।
जाने किसकी नजर लगी है, उस हँसती फुलवारी पर।
धन-कुबेर गड्डी नोटों की, फूँकें आतिशबाजी पर।
बच्चे निर्धन के घर देखो, टूट रहे तरकारी पर।
स्वार्थ-ग्रसित हो रिश्वत खाकर, न्याय गलत जो करता है।
ठोको दावा मिलकर सारे, ऊँचे उस अधिकारी पर।
बनना कुछ तो आज अभी से, खून-पसीना एक करो।
लक्ष्य न हासिल कर पाओगे, इस छिटपुट तैयारी पर।
रहें काम सधने तक अपने, फिर इनको परवाह नहीं।
स्वार्थ जनित सब रिश्ते-नाते, थू इस दुनियादारी पर।
जिस थाली में करते भोजन, छेद उसी में करते हैं।
रहें यहाँ पर गाएँ पर की, लानत इस गद्दारी पर।
वृद्धाश्रम में छोड़ गया सुत, चिंता फिर भी करती है।
सतत मनाती कुशल पुत्र की, सदके उस महतारी पर।
अमृत महोत्सव मना रहे हम, उत्सव रचकर गली-गली
गुजरी सदी तीन-चौथाई, यूँ ही मारामारी पर।
किस्मत देती आई गच्चा, अब क्या आस लगानी है।
अब तो वक्त कटे ‘सीमा’ का, अंत-सफर तैयारी पर।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
“सृजन संगम” से
Nice Poem 👍👍
ReplyDeleteThank you
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