Thursday 3 December 2015

मैंने तुमको देखा---

मैंने तुमको देखा-
    देखा अद्भुत रूप तुम्हारा !

यूँ ही सदा की तरह
दो आँखें
बुन रही थीं ख्वाब
आंकने छवि तुम्हारी
हो रही थीं बेताब
ले संबल उस कल्पना का सतत
गोधूली के धुंधलके में
कुतुहल सा रचते
पावन पद रखते
चले आए थे जब तुम
बस यूं ही अठखेली करते
मेरे कोरे मन के द्वारे
और मैं पगली- सी
निहारती ही रही थी तुम्हें
बेसुध-सी अपलक
निर्निमेष !

ऊंगलियाँ चल रही थीं
अनथक
कभी बनती-सी लगती आकृति
बिगड़ जाती पर
तत्क्षण !
विहँसती आँखों से
लरज गिरते दो आँसू
घुल- मिल जाते
उस छवि में
जिसे आंकने में
बर्ष दर बर्ष
बीतते रहे
कहीं कुछ न कुछ
कसर
रह ही जाती थी
क्यों नहीं
बन पाता था अक्स सही
बस सोचती रह जाती थी
मन मसोस
कभी मुंद जातीं पलकें !

थक कर बेसुध-सी
आज भी तो
यूँ ही
खोई- सी तुम में
मन के फलक पर
आंकती तस्वीर तुम्हारी
कब लुढ़क गिरी कहाँ
कुछ होश रहा न अपना
सहसा खुमारी में
नींद की
होने लगा कुछ अहसास
बिचित्र-सा
मोहक-सा
उन्मादक
अपनी ओर खींचता-सा
बनने लगी शनैः शनैः
आकृति एक
अलौकिक-सी
खुद ब खुद
खिंचती लकीरें
सीधी, आड़ी, गोल
उफ ! ये रूप
मन विस्मित असूझ
कंपकंपाते अधर अवाक्
नयन विस्फारित
देखते रहे अद्भुत नजारा
आलोकित हो उठा था
मन का कोना कोना
हाँ वही तो थी रूपराशि हूबहू
आंकने में जिसे
बिछल गयीं थीं
ऊंगलियाँ मेरी
छलक आया था लहू
बीत गए थे युग अनगिन
कहीं न कहीं
रह ही जाती थी
कोई ना कोई कमी
उफ !
क्या रूप माधुरी थी
समा न पाती थी आँखों में
देख-देख जिसे
मन अघाता न था !

आज जाना मैंने
पल- पल नूतन होते
अद्वितीय इस रूप को
कैसे आँक पाती मैं
कैसे कर पाती आबद्ध
लघु तूलिका में अपनी
व्यापकता उसकी
वो तो समाया था
सृष्टि के कण-कण में
नहीं था मात्र
देह एक
बँधता कैसे
लघु पाश में
मेरी कल्पना के
वो तो था असीम
अनादि, अनंत
और मैं-
मात्र नन्ही-सी
निकली उससे ही
उसकी ही
सीमा में आबद्ध
उससे प्रतिबिंबित
उससे उद्भासित
उसकी प्रतिच्छाया एक !

-सीमा

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