सखि री ! मैं हूँ जिसकी दीवानी
वो ही ना जाने इस मन की पीर !
लाख जतन कर करके मैं हारी,
कुछ समझा ना वो निष्ठुर बेपीर !
मन चाहे उससे लिपट मैं जाऊँ
साँसों में उसकी घुलमिल जाऊँ
ढल के उसमें उस सी हो जाऊँ
मिलने को उससे दिल है अधीर !
पल भर उस बिन रह न सकूँ मैं
दिल की किसी से कह न सकूँ मैं
दूरी उससे अब सह न सकूँ मैं
बहता रह-रह अंखियों से नीर !
अधिकार नहीं कुछ उस पर मेरा
फिर भी लगता है मुझे वो मेरा
उस बिन जीवन निस्सार है मेरा
कहो तो दिखा दूँ दिल को चीर !
मैं मीरा उसकी वो मोहन मेरा
अधूरा है उस बिन जीवन मेरा
लाख सितम ढाए ये दुनिया
संग लिये फिरूं उसकी तस्वीर !
--- सीमा ---
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