तुमने ही तो ढील दी इतनी
खिंची चली मैं तुम तक आई !
मोहक छबि बसा आँखों में
मन ने अपनी प्यास बुझाई !
खींच रहे हो डोर उधर तुम
इधर जां पर मेरी बन आई !
यूँ न मुँह फेरो अब मुझसे
तुम्हारी ही हूँ मैं,नहीं पराई !
मन के तार जुड़े क्या तुमसे
मैं सुध बुध तन की भूल गयी !
कल्पना में गढ़ रूप तुम्हारा
रूह बाँहों में तुम्हारी झूल गयी !
दूर दूर रह कर भी तो हमने
कितना जीवन साथ जिया है !
जब भी अश्क बहे हैं तुम्हारे
पलकों पर मैंने उन्हें लिया है !
आबाद रहो खुशहाल रहो तुम
फरियाद ये रब से करती हूँ !
तुम्हारे दिल की तो तुम जानो
हरपल याद तुम्हें मैं करती हूँ !
---- सीमा-----
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