हाँ
रात हूँ मैं
काली अंधियारी
नहीं रूपसी मैं कोई
पर हो जाती हूँ रूपहली
रूप का आगार
मेरा अतुल श्रंगार
उज्ज्वल सलोना चाँद जब
आ विराजता अंक में मेरे
दमक उठता श्याम रंग
निखर उठता अंग- अंग
फूली ना समाती मैं
मुझे है भरोसा
दिन भर की अथक गति से ऊब
डूबेगा रवि जब
उदधि के गहन गह्वर में
तुम चले आओगे
शीतोदधि में नहा
पहन उजला वसन सजीला
डग भरते शनैः शनैः
आगोश में मेरे
छुप जाओगे
कर दोगे आलोकित
मेरा तमसावृत सूना जहां
दिन भर ही तो
तकती हैं निगाहें
छुप- छुप तेरे पदचिन्ह धूमिल
दूर एक कोने से
उस छोर तक क्षितिज के
आस में तेरे आगम की
टकटकी लगाए
निहारा करती तुझे मैं अपलक, अविराम
कि होते ही दिवसावसान
आन समाएगा तू अंक में मेरे
मिट जाएगी मधुर स्पर्श से तेरे
दिन भर की थकन मेरी भी
पर आज तो
बीतती गयीं घड़ियाँ इंतजार की
रीतती गयी हर आस
ना मिली जब तेरी रत्तीभर भी झलक
मेरी भी थकी- हारी मुंदने लगीं पलक
तुझे ना आना था, ना आया
निढाल, बेबस, अनमनी सी मैं
जूझती रही अंधेरों से
पूछती रही पता तेरा सितारों से
सुना तो सन्नाटे में रह गयी
पता चला अमावस है आज
ये तेरा मासिक अवकाश है !
--- सीमा अग्रवाल ---
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