Saturday 7 January 2017

तुम और मैं ---

गगन सा विस्तार तुम
जिसमें जड़ी मैं एक सितारे सी
टिमटिमाती
दीन-हीन
अबोध, अनजान, नादान
क्या मालूम है तुम्हें
गिनती अपने भीतर जगमगाते
जलते- बुझते अहर्निश
अनगिन सितारों की
देखो,
मैं भी तो तुमसे जनमती
तुममें विलय हो जाती
तुमसे पृथक कोई अस्तित्व नहीं मेरा
पहचानो मुझे
अंश हूँ मैं तुम्हारा
विलग नहीं तुमसे
यूँ अनजान ना रहो मुझसे
हर पल मैं तुममें डूबती- उतराती
मुग्ध होती निहार
छवि तुम्हारी अद्भुत
चाहती एक लघु स्पर्श भर तुम्हारा
नेह भरा
ताकि हो स्पंदन कुछ तो
मेरे इस निर्जीव पाषाण तन में
झिंझोड़ दो मुझे
पकड़ बलिष्ठ बाँहों से अपनी
कि ये जड़ता अब सही नहीं जाती
पल भर के लिए
अपना यह वृहत् रूप तज
धारो मुझ सा लघ्वाकार
मिलो मुझसे
आमने- सामने साकार
एक बार कभी तो
हो समरूप

मिलें हम
दूरस्थ कहीं ऐसे वीराने में
जहाँ सिर्फ मैं और तुम हों
और ना कोई
निहारें अपलक एक दूजे को
हो अनिर्वचनीय शब्दातीत
तुम जानो मुझे
मैं तुम्हे
आहिस्ता- आहिस्ता तुम समा मुझमें
क्षणिक ही सही
मुझे भी एक अलौकिक स्वर्गिक अहसास दो
छिटक तुमसे
जा पड़ी दूर कहीं
किसी एक सुनसान कोने में
राह तकती मैं
युगो-ं युगों से तुम्हारी
नयनों में अनगिन ख्बाव संजोए
काश कभी तो पल वह आए
ये लघु अस्तित्व
सहज समर्पित भाव लिए
एकाकार हो
सदा- सदा को
तुम में घुल- मिल जाए
यूं तज मोह विराट का पल भर
गर स्वीकार करो तुम
मेरी लघु सीमा का बंधन
मैं मिल तुमसे, तुम्हारी
थाह अगाधता की पा लूँ !
तुम मेरी हद को जानो
मेरे सुख- दुख पहचानो
मैं उन्मुक्त, असीम हो
देखूँ तुम्हारे करतब न्यारे
एक सुर, एक लय हो यूं
तुम मुझमय, मैं तुममय हो जाऊँ

- सीमा
०८-०१-२०१७

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