फितरत दुनिया की…
इस दुनिया की ये फितरत है।
अपना कहती फिर छलती है।
बाहर- बाहर मीठी बातें,
पर भीतर चालें चलती है।
किए बड़े थे उसने वादे।
मगर नहीं थे नेक इरादे।
झूठ खुला तो जाना, कैसे
चतुराई रूप बदलती है।
मीठी बोली में विष-गोली।
नज़र बचाकर उसने घोली।
भाँप न पाया दिल ये मेरा,
इसमें मेरी क्या गलती है ?
दिल पर जो छुपछुप घात करे।
छल से आहत जज्बात करे।
वाकिफ सदा रहे इस सच से,
आह भी एक दिन फलती है।
जग में सूरज- चाँद-सितारे।
आते – जाते बारी – बारी।
दिन भी सदा न सबका रहता,
रात भी सभी की ढलती है।
कभी किसी की रातें लम्बी।
कभी किसी के दिन बढ़ जाते।
भाग बराबर मिलता सबको,
समता से दुनिया चलती है।
© सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद
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