Tuesday 5 December 2017

अब तक न जाना चंदा...

अधर कुछ कह न पाए
मौन वे समझ न पाए

तकते रहे हम उनको
उनसे ही नज़र चुराए

झपीं न पलकें पल भर
तक-तक न नयन अघाए

प्यास बुझी ना मन की
मेघा कितने घिर के आए

इक प्यासे चातक हित
स्वाति-बूँद कहाँ से आए

अब तक ना जाना चंदा
क्यूं चकोर के मन वो भाए

उठे मन में हूक रह-रह
छलते हमें अपने ही साए

उजड़ी बस्ती ख्वाबों की
कैसे भी अब बस न पाए

हर कोई आता- जाता
दुखती रग को छूता जाए

कौन, जो ऐसी घड़ी में
आहत मन को आस बंधाए

खुद बंधन तोड़ने वाला
क्यूँ 'सीमा' मेरी मुझे बताए

- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद (उ.प्र.)
एक साझा काव्य संग्रह में प्रकाशित

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