चित्र काव्य प्रतियोगिता हेतु -
नेह नयनों में भरे उतरी जमीं पर चाँदनी
पलकों पे ख्वाब धरे पसरी है उन्मादिनी
ताजे कदमों के निशां कर रहे हैं यह बयां
रेत पे थिरकी थकी बाला षोडशी नाजनीं
मासूम कैसे दिख रहे मीन से चंचल नयन
अंग कोमल कमनीय देह कंचन कामिनी
शहरी दरिंदों से बच दौड़ी चली आई यहाँ
कुदरत के आँचल में लेती सुूकूं सुहासिनी
माँ के स्पर्श सी सुखद प्रकृति की क्रोड़ ये
बिछौना सिकता बनी लहरें बनी हैं ओढ़नी
आश्रय ले उपधान का सोई है बेफिक्र मस्त
झिलमिलाते अंग- वस्त्र जैसे हो सौदामिनी
रजत पात्र ले चाँद भर- भर सुधा ढरकाए
झूम रही ओस न्हायी रात नशीली कासनी
- डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र.)
स्वरचित
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