ढलते अश्कों की लय पर मैंने,
गुनगुनाना सीख लिया है।
हिलमिल कर अब साथ गमों के,
मुस्कुराना सीख लिया है।
बीत गए अब दिन वो मेरे,
अरमां जब मचला करते थे।
जिद में चाँद को छूने की,
कितना ये उछला करते थे।
समझा बुझाकर मैंने इन्हें अब,
रस्ते पर लाना सीख लिया है।
बात-बात पर इन आँखों में,
कितने आँसू भर जाते थे।
बह न जाएँ बाढ़ में इनकी,
देखने वाले डर जाते थे।
जन्म लेने से पहले ही इन्हें अब,
मैंने दफनाना सीख लिया है।
क्या हुआ जो संगी सुख मेरे,
एक-एक कर नाता तोड़ चले।
क्या हुआ जो प्रस्तर मग के,
दिशा ही जीवन की मोड़ चले।
हर राह पर अब बेखौफ मैंने,
कदम बढ़ाना सीख लिया है।
तपकर आग में संघर्षों की,
मन कुंदन आज बना मेरा।
दुःख के बिषैले सर्पों बीच,
जीवन-चंदन महका मेरा।
पर्वत-सी मुश्किल को मैंने,
गले लगाना सीख लिया है !
हिलमिल कर अब साथ गमों के,
मुस्कुराना सीख लिया है।
- डाॅ0 सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
"चाहत चकोर की" से