शपथ तुम्हें है बाद मेरे,
गीत न मेरे मरने देना।
'मनके मेरे मन के सब',
आज तुम्हारे नाम किए।
सहज समर्पण है ये मेरा,
चाव मधुर अभिराम लिए।
मेरे सुपालित भावों के,
पात हरित न झरने देना।
भरे हैं थोक में दुःशासन।
भूले बैठे हर अनुशासन।
द्रुपद-सुता-सी पीर मेरी,
दबी-ढकी-सहमी एकवसन।
कायरों की भरी सभा में,
चीर न उसका हरने देना।
माना जग ने ढाए कहर।
पा सकी सुकूं न एक पहर।
गुम हो अँधेरों में सोऊँगी,
जीवन-जोत जाएगी ठहर।
छुपी रही जो अब तक सबसे,
पीर न कभी उघरने देना।
आने वाली पीढ़ी को तुम,
व्यथा न मेरी बतलाना।
रफ्तार थमे न जीवन की,
कथा न मेरी दोहराना।
आस्था जग में नित बनी रहे,
हास न मुख का झरने देना।
खायीं पग-पग पर जो चोटें।
कुछ कर्म किए होंगे खोटे।
चली चाल किस्मत ने ऐसी,
पिटीं सभी मेरी ही गोटें।
शाश्वत शयन-कक्ष में मेरे,
पग न उसे अब धरने देना।
क्या अब कोई सुख पाना है।
ठूँठ खड़ा कब ढह जाना है।
उड़ा बाष्प बन ताप हृदय का,
मेघ-सरीखा बह जाना है।
रहें सुरक्षित दर-दीवारें,
सेंध न घर में लगने देना।
गीत न मेरे मरने देना।
© डॉ.सीमा अग्रवाल
मुरादाबाद ( उ.प्र. )
साझा संग्रह "ख्याल" में प्रकाशित